वनवास का वर्णन कर समझाया रामायण का महत्व

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झाबुआ लाइव के लिऐ थांदला से रितेश गुप्ता की रिपोर्ट ॥IMG-20150510-WA0319IMG-20150510-WA0318

श्री राम के लिये चोदह वर्ष का वनवास ही क्यों मांगा गया? कुछ अधिक या कुछ कम क्यों नहीं? इसका कारण है पाॅच ज्ञानेन्द्रियाॅ, पाॅच कर्मेन्द्रियाॅ, मन, बुद्धि, चित और अहॅकार यह चैदह महŸात्व हैं जो मानव की देह और मानव की सृष्टि को चलाते है और संचालित करते हैं। इन चैदह को स्थिर करने के बाद ही रावण को मारा जा सकता था। रावण को मारने के लिये परब्रहम का मानव बनना और मानव की सीमा में ही आचरण करना आवश्यक था। गुरू बनना कठिन कार्य है क्योेंकि शिष्य के पुण्य अथवा पाप दोनों कर्मों का 1/6 भाग गुरू को भोगना पड़ता है। दो-चार अयोग्य शिष्य गुरू के पास हो तो शिष्यों के कर्मों का फल भोगते – भोगते उसकी गुरूता कहाॅ जायेगी? यह तो सोचने की बात हैं। पथ चार प्रकार के हैं व्यर्थ, अनर्थ, स्वार्थ एवं परमार्थ। स्वार्थ का पथ बुरा चाहे न हो वह श्रेष्ठ नही होता। पथ तो परमार्थ का ही श्रेष्ठ होता है। यह श्रेष्ठ विचार जगद्गुरू दिव्यानंद जी तीर्थ महाराज के थे जो उन्होेंने रामायण मेले के ग्यारहवें वर्ष की तृतीय सन्ध्या पर व्यक्त किये।

स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज ने मानस की अद्भुत प्रतीकात्मक व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा कि रामचरित मानस के सप्तसोपान विराट पुरूष के विविध अंग हैं। बालकाण्ड चरण है, अयोध्याकांड घुटने एवं जंघाएॅ हैं। अरण्यकांड उदर है, किष्किंधाकांड पृष्ठ भाग है तो सुंदरकांड हृदय भाग, कंठ नासिका लंकाकांड है तो ऊपर का शेष भाग उŸारकांड।श्री ज्ञानानंद जी ने मर्यादा और धर्म के परस्पर संबंध पर प्रकाशडाला और कहा कि हमें दूसरों के धर्म की मर्यादा का भी रक्षा करना चाहिये।

गाजीपुर से पधारे मानस मयंक श्री अखिलेश जी उपाध्याय ने कहा कि हमारे मन में जब भी कोई विकार उत्पन्न होता है तब हमें ज्ञात हो जाता है किंतु ‘ अहंकार ’ के उत्पन्न होने की जानकारी दूसरों को होती है। जब तक मन में अहंकार है शांति मिल ही नहीं सकती। भक्ति में चतुराई नहीं चलती। अहॅकार के हिमालय के गलने पर ही समर्पण की गंगा बहती है और समर्पण से भगवान् के चरणों तक पहुॅचने का रास्ता साफ होता हैं।

साध्वी विदुषी सुश्री शिरोमणि दुबे ने मानस के अरण्यकांड से कथा प्रसंग उठाते हुए सति शिरोमणि अनसूया के द्वारा भगवती सीता को दिये गये नारी धर्म उपदेश के महत्व को समझाया। उन्होंने लक्ष्मण पत्नी उर्मिला और मेघनाद पत्नी सुलोचना के चरित्रों को भी समझाया। इंद्रपुत्र जयंत के संदर्भ में उन्होंने कहा कि दुष्ट का वेश धरकर दुष्टता करे तो वह थोड़ा क्षम्य है किंतु साधु का वेश धरकर असाधुता करने वालो को मृत्युदंड मिलना ही चाहिये।

थांदला में चल रहे अखिल भारतीय रामायण मेले के ग्यारहवें वर्ष की तृतीय संध्या का संचालन सुश्री जया पाठक ने किया। दीप प्रज्जवलन एवं श्रीराम, श्रीतुलसीदास जी, श्री सरस्वतीनंदन स्वामी जी, स्व. मोतीलाल जी दवे के चित्रों पर माल्यार्पण श्री ज्ञानानंद जी ने किया। संयोजक श्री नारायण भट्ट, श्री भूदेव आचार्य ने पादुका पूजन एवं संतो को माल्यार्पण किया। श्री ओमप्रकाश वैरागी, श्री जयेन्द्र वैरागी, मंगलेश्वर दास जी, लोकेन्द्र जी आचार्य, श्री कन्हैयालाल जी शर्मा, मोहन हाड़ा, व्येंकटेश्वर राय जी अरोरा, मणिलाल जी नागर, रमेश जी नागर, शांतिलाल जी नागर, राजेन्द्रजी अग्निहोत्री, श्रीमती कृष्णा रामायणी, मंजुला व्यास आदि ने संतो से आशीर्वाद प्राप्त किये। श्री जनक जी रामायणी एवं श्री हरिकृष्ण शास्त्री ने सुमधुर भंजनो की ससंगीत प्रस्तुति दी।