दसलक्षण महापर्व की दी सीख, ‘मनुष्य को अहंकार छोड़ स्वयं का भला करना है’

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मयंक गोयल राणापुर

दशलक्षण महापर्व दुसरे दिन उत्तम मार्दव धर्म मनाया गया इस दिन अग्रवाल दि. जैन मदिंर मे भगवान तीन लोक के नाथ पारसनाथ भगवान का अभिषेक शांतिधारा हुई नित्यनियम की पुजा, दशलक्षण धर्म की दूसरी पूजा उत्तम मार्दव धर्म , समुच्चय पूजा तत्वार्थ हुई। पुजा लाभ ओमप्रकाश किशनलाल अग्रवाल रतलाम वाले एवं पवन रमेशचंद्र अग्रवाल परिवार की ओर से थी।
मार्दव धर्म का महत्व समझाया
मार्दव अर्थात् मृदु .परिणाम, कोमल परिणाम, अभिमान के विरोधी। आज तक पदार्थों को अपना मानता हुआ कुल ,जाति, रूप, धन, बल, ऐश्वर्य, तप, ज्ञान आदि की महिमा को गिनता हुआ, इनमें से रस लेता हुआ, इनके कारण ही ही अपनी महानता मानकर गर्व करता हुआ चला आ रहा है। झूठा है यह गर्व जिसका कोई मूल्य नहीं है, कोई आधार नहीं। इन पदार्थों से अपनी महिमा व बड़प्पन की भिक्षा माँगने में ही गर्व करता आ रहा है। इनका मैं स्वामी हूँ , इनका मैं कर्ता हूँ ए मेरे द्वारा ही इनका काम चल रहा है, ये सब मेरे लिए ही काम कर रहे हैं । इत्यादि झूठी कल्पनाओं के अंधकार में आज तू अपनी वास्तविक महिमा को भूल बैठा है अपनी विभूति को न गिनकर भिखारी बन बैठा है ।
शास्त्र वाचन में सुनील भैया ने बताया उत्तम जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, रूप, तप, विद्या और धन का अभिमान नहीं करना मार्दव है। मान कषाय के न होने को ही उत्तम मार्दव कहते हैं जहां मृदुता का भाव होता है वहां मार्दव धर्म होता है।
अहंकार मानव का घातक है, बैरी है तथा मार्दव धर्म उसका परम हितैशी है। उन्होंने कहा कि हमारा कर्तव्य है कि हम मानवता को अपनाएं। जो सदैव अपने कुल, जाति और धर्म का गौरव रखते हुए गर्व का त्याग करते हैं वे ही अपने स्वाभिमान की रक्षा करके इस लोक में सर्वमान्य होते हैं और परलोक में उ’च कुल में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। मानव जीवन में सौंदर्य के पुष्प मार्दव के माध्यम से खिलते हैं। इसलिए मान कषाय को छोड़कर विनय का आश्रय लेकर मार्दव धर्म को हृदय में स्थान देना चाहिए। उत्तम मार्दव धर्म आत्मा का परिणाम है तथा सम्यक दर्शन का अंग है।

अहँकार का त्याग भी अपना कल्याण है-

अहंकार त्यागने का अर्थ यह है कि मनुष्य अपने को दूसरों से श्रेष्ठ एवं बुद्धिमान और दूसरों को अपने से तुच्छ एवं मूर्ख समझ कर उनको अपमानित न करे, अधिकारी तथा धन सम्पन्न होकर भी स्वामित्व का गर्व प्रदर्शित न करे। अल्पज्ञ होकर ज्ञान दुर्वियज्ञ न बने, छोटे मुँह बड़ी बात न करे और बड़प्पन न कर मोह त्याग दे। किसी को यह न सोचना चाहिए कि जो कुछ वह कहता है वह ठीक है। प्रत्येक को यह मानना चाहिये कि भूल उससे भी होती है। किसी की साधारण आलोचना को व्यक्तित्व पर आक्रमण नहीं समझना चाहिए। आलोचना से लाभ लेकर अपने दोषों को सुधारना चाहिए। छोटे-छोटे व्यक्ति का उपहार नहीं करना चाहिए। और आवश्यकता पड़ने पर सत्कार्य की सिद्धि के लिये उसी प्रकार झुक जाना चाहिए। अपने से बडे़ या गुणवान धर्मात्मा को देखकर उनका सत्कार करना, बड़ों की आज्ञा को मानना, उनके बोलते समय बीच में नहीं बोलना, बड़ों के पीछे-पीछे चलना, गुरू के आगे न चलकर उनके पीछे चलना, उनके वचन को पालना, इत्यादि विनय की बातें हमेशा याद रखना और उसी के अनुसार चलना तभी विनय कहा जाता है। अर्थात लोक-लज्जा का ध्यान रखना शिष्टाचार का एक आवश्यक अंग है। लज्जावान् होना प्रत्येक मानव प्राणी का कर्तव्य है ? ये ही मानवता का कल्याण मार्ग है, इसलिए हमेशा अपने भाव को नरम रखना प्रत्येक मानव का कर्तव्य है।