‘सौंदर्य लोक में’  यूनिक फील क्रिएशंस से प्रकाशित डॉ. स्नेहलता श्रीवास्तव की यात्रा वृत्तांत पुस्तक है

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थांदला। लेखिका की दृष्टि में “यात्राएंँ सौंदर्य का उत्सव होती है, ज्ञानार्जन का हेतु और आनंद का सेतु होती हैं। यात्रा में हम अकेले नहीं होते हमारे साथ प्रकृति भूगोल इतिहास संस्कृति और परिस्थितियों भी जुड़ी रहती हैं”।

सौंदर्यलोक में लेखिका ने अपनी यात्राओं के रोमांचकारी, आह्लादकारी, अद्भुत अनुभवों को पाठकों के साथ साझा किया है और सागर, नदियों और पर्वतों के रूप में अंडमान द्वीप, कबीनी नदी और गांँव, मैसूर, भीमेश्वरी, बन्नेरघट्टा राष्ट्रीय उद्यान के साथ गोवा के बागा बीच, आरंबोल बीच, मोटंगो बे रिसॉर्ट, अगोंडा बीच, बटरफ्लाई बीच और कोलवा बीच के दर्शन पाठकों को करवाए हैं। ये प्राकृतिक स्थल प्रकृति और परमेश्वर की जितनी अद्भुत रचनाएंँ हैं, उतना ही सहज,सरस और सुन्दर लेखिका का लेखन भी है।

अंडमान द्वीप का सौंदर्य वहाँ की प्रकृति और इतिहास में निहित है। स्वच्छ विशाल सागर, जलीय जंतु, घने जंगल और सेलुलर जेल (जो देश की जनता के लिए पावन तीर्थ के समान है, आजादी के दीवानों की उपासना स्थली है) का वर्णन झकझोरने वाला है –

“स्वतंत्रता सेनानियों ने यहांँ कितने मर्मांतक कष्ट अत्याचार और वेदना सही है….. आत्मा अकुला रही थी, और पैर काँप रहे थे….. यहांँ तो जाना हुआ जीवंत होकर हमें झकझोर रहा था। मुझे ऐसा लगने लगा कि चाबुक की क्रूर आवाज आ रही है और देशभक्तों की पावन स्वेद गंध हवा में महकने लगी”(पृष्ठ 3-4) 

यहांँ अन्य सैलानियों के साथ राष्ट्रभक्ति भावना का साधारणीकरण भी पठनीय है- “जन-मन यहांँ पहुंँच कर अत्यंत भावुक हो गतिहीन हो गया था। सभी के मुख श्रीहीन हो रहे थे, कुछ युवा फांँसी के फंँदे को छूकर उनकी कठोरता का अनुभव कर रहे थे। जब तीन-तीन देशभक्ति एक साथ वंदे मातरम् का मंगल घोष करते हुए इन पर झूल गए होंगे, उस दृश्य की परिकल्पना मात्र से सब सिहरे हुए थे, आंँसुओं की अविरल धारा प्रवाहित थी। कोमल हृदय नारियांँ बिलखते हुए दूर खड़ी, करबद्ध श्रद्धांजलि दे रही थीं। (पृष्ठ 5)

आगे लेखिका कहती है  “दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल”  को वर्षों से सुनती आ रही हमारे देश की पीढ़ियाँ अंडमान पहुंचकर जेल की यात्राओं की कथा सुनें और देखें तो वह इस गीत  के कवि/ रचनाकार को कभी क्षमा नहीं करेंगी। हमारी स्वतंत्रता का रेशा-रेशा इन क्रांतिकारियों के त्याग और बलिदानों से बुना हुआ है।”(पृष्ठ 12)

उपमाओं-उत्प्रेक्षाओं- रूपकों से, प्रसाद और माधुर्य से सजा प्रकृति का स्वरूप हमें उससे एकाकार करता है। द्वैतता को मिटा देना लेखन का धर्म है और इसका निर्वाह सौंदर्य लोक में स्थान स्थान पर मिलता है। लेखिका साहित्यकार भी है और इस पुस्तक में परिव्राजक भी। सागर तट पर उनकी यायावरी इस तरह व्यक्त हुई है – “क्रिस्टल की तरह चमकदार और पारदर्शी स्वच्छ अगाध नील जल राशि, समुद्र तट पर फैली सफेद चमकीली मैदे से मुलायम स्पर्श वाली रेत, ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो चेतन सौंदर्य का उत्सव हो”।(पृष्ठ 19)  प्रकृति का मानवीकरण रूप हमारे मन को मोह लेता है  – “सघन वृक्षों के पत्तों से छनकर आती हुई चांँदनी रास्ता दिखा रही थी। पर वह रात भर प्रकाश बिखरते हुए अब थक चुकी थी”। (पृष्ठ 25 ) 

प्रकृति का क्रमबद्ध नाटकीय परिवर्तन देखिए, प्रातः समुद्र तट की स्तब्धता परिवर्तित होकर किस तरह पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश को साकार कर रही है – “दमकता हुआ प्रकाश का गोला तेजी से ऊपर उठ आया मानो सागर की स्वर्ण कंदूक उछल आई हो….. रुका हुआ पवन अब गतिमान होने लगा ……सूरज भी तेजस्वी होता जा रहा था”(पृष्ठ 27)

सूर्य देव लेखिका के प्रेरक तत्वों में से एक हैं। उनकी सभी रचनाओं में सूर्य देव का भव्य, दिव्य और प्रेरक रूप उन्मुक्त होकर प्रार्थना का स्वर बना है। यहां भी उस रूप के दर्शन सहज ही किए जा सकते हैं। बाल मनोविज्ञान  आधारित रोचक और आनंदित करने वाला प्रश्नोंत्तर प्रसंग लेखिका के कौशल को दर्शाते हुए हमें सूरदास के प्रश्नों की ओर ले जाता है- मैया कबहुंँ बढ़ेगी चोटी? यशोदा मैया जिस तरह बालकृष्ण को समझाती है ठीक उसी तरह आज के बालक के वैज्ञानिक मन की जिज्ञासाएँ और अनुभवी रचनाकार दादी के समाधान कारक उत्तर दोनों  में ही ही  लेखकीय प्रतिभा  सहज अभिव्यक्त है।  यहाँ लेखिका के कथन उनके मन की दार्शनिकता के दर्पण हैं।(पृष्ठ 30 से 35)

अनुपम सौन्दर्य छटाओं का तट : काला पत्थर, बहुरंगी सौंदर्य की छटा :बारतांग द्वीप, साहस और सौंदर्य की यात्रा : बारतांग से माया बंदर, एक सुखद अनुभव : मायाबंदर से डिगलीपुर, समुद्र का राजराजेश्वर रूप, रंगत की यादगार रात, आम्रकुंज में सूर्योदय, सी प्रिंसेस और चिड़िया टापू, नार्थ बे : एक अद्भुत अनुभव, अंडमान की अंतिम आनंदमयी साँझ और अंडमान रहेगा याद आदि शीर्षकों में विभक्त यात्रा के खंड -सागर, घने जंगल, चट्टानें, गुफाएंँ, लेखिका के मन और बुद्धि के ऐक्य और अखंडता को अभिव्यक्त करते हुए भरपूर आनंद का सृजन करते हैं।

सूर्यदेव के सतरंगी स्वभाव को सागर के रस, गंध, उफनती हुई गति की सुषमा से एकाकार कर परमानंद की सृष्टि कोई बिरला साहित्यकार ही करता है। सूर्य के इंद्रधनुषी सौंदर्य को सागर के उग्र, भीम और भयंकर रूप, ब्रजरज सी बालू ,सागरीय जीव जंतु का मायाजाल, मोती, शंख आदि की समानता और उत्ताल तरंगों की नर्तन रूपी सुषमा  से एकाकार कर परमानंद की सृष्टि एक सुधि साधक  साहित्यकार ही कर सकता है – यही इस कृति की जीवनी शक्ति है। यहां लेखिका ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रकृति की मोहक छबियाँ, प्रेम की मिठास, गति का उत्साह और समर्पण की त्रिवेणी बाह्य यात्रा को सार्थक और अंतर्यात्रा को पूर्ण करती है। लेखिका अपनी इन यात्राओं का श्रेय माता-पिता, सास ससुर और सूर्य देव को अर्पित करना भी नहीं भूलती है।

प्रकृति का इंद्रीय और अतिन्द्रीय आनंद व्यक्ति की दृष्टि पर निर्भर करता है। कबीनी की यात्रा में लेखिका ने भौतिक सुख सुविधाओं के साथ प्राकृतिक सौंदर्य का अति सुंदर वर्णन किया है – वाहन ,भोजन, कर्मचारियों का व्यवहार, गाइड का भोलापन सभी यहांँ मुखरित हुए हैं। कठिनाइयों में भी सुख खोज कर यात्रा को भरपूर आह्लादक बनाया है। बैलगाड़ी की यात्रा, स्पीड बोर्ड और ओरेकल से जल यात्रा, मछलियों की चपलता, लोक संगीत और स्थानीय फलों और भोजन का आनंद आदि इतने सजीव है कि  दृष्टि से एक भी शब्द छूटना यानी स्वयं को अखंड आनंद से वंचित करना है। कदम-कदम  पर आनंद को खोजना और उसे शब्दों में व्यक्त करना भी एक साधना है। इस समय मैं सधना की कला वीथिका  में घूमकर स्वयं को भूलने का प्रयास कर रही हूंँ। “केशव कहीं न जाय का कहिये” यूं ही नहीं लिखा गया है – काम क्रोध आदि दोष से मुक्त प्रकृति, जीवन सौंदर्य की स्रोत प्रकृति, और विपरीत गुण धर्म को अद्वैत में रूपांतरित करती प्रकृति को शब्दों में व्यक्त करना “गूंगे केरी सर्करा” है, पर लेखिका ने इस असंभव  को भी संभव कर दिखाया है। प्रकृति मानव को जो सुख देती है, वह मानव निर्मित संसाधनों से प्राप्त नहीं हो सकता है – संसाधन माध्यम है स्रोत नहीं। प्रकृति स्वयं एक उत्सव है – हमें अपनी जीवन यात्रा को भी उत्सव की तरह ही लेना चाहिए।

मैसूर के रेत मूर्तिकला संग्रहालय और मोम मूर्तिकला संग्रहालय का यात्रा वृत्तांत भी ज्ञानवर्धक और रोचक है।

गणपति आश्रम मैसूर के बाहर प्रकृति और भीतर अध्यात्म के सुखद एहसास भाव विभोर करने वाले हैं। हरीतिमा, हवाएंँ, सूर्य की किरणों का नर्तन एक कुशल चितेरी की कलम से गुजरता है तो लास्य की अनुपम सृष्टि होती है – “दोपहर ढल रही थी। वातावरण में नर्म उदासी घुल चुकी थी। हरीतिमा के शहर मैसूर की शोख हवाओं को अपनी शीतलता पर संकट अनुभव होने लगा, तो उन्होंने भी अपनी गति बढ़ा दी। फिर भी सूरज की किरणें नहीं मान रही थीं। वे हवाओं को अपने रंग में रंग देने को आमादा थीं। पर जिद्दी हवाओं को यह कतई मंजूर नहीं था, वे अपने मित्र बादलों को घेर लाईं और किरणों को छा लिया, तो सूरज ने मुस्कुराते हुए हमेशा की तरह अपनी उदारता दिखाई और किरणों को शान्त कर लिया”। (पृष्ठ 126)

यह वर्णन निश्चित ही विश्व साहित्य के श्रेष्ठ उदाहरण  में बेहिचक  रखा जाना चाहिए। प्रकृति का सरस मानवीकरण और उसके उपादानों की एक के बाद एक गतिविधि रंगमंच के कुशल कलाकारों की तरह हमारे सामने आती है। केवल अभिनय ही नहीं, मनोभावों का प्रकटीकरण भी अनुपम है।

गणपति आश्रम के पांँच आकर्षणों वास्तुकला संस्कृति अध्यात्म सौंदर्य और सेवा को लेखिका ने पंचवटी कहा है। भारतीय संस्कृति और संस्कारों के समुच्चय इस अद्भुत आश्रम की जानकारी भी ज्ञानवर्धक और अत्यंत रोचक रूप में प्रस्तुत हुई है।

यहाँ स्वामी जी द्वारा स्थापित और विकसित 468 प्रजातियों के रंग बिरंगे तोतों से समृद्ध ‘शुक वन’  का बोलता सौंदर्य और इसकी स्थापना से जुड़ी सत्य घटना रोमांचकारी है।

शुकवन के बाद बोनसाई उद्यान भी मानव कला का उदात्त रूप प्रतीत होता है। लेखिका कहती हैं कि “बोनसाई गमले में लगाया गया लघु कृत पौधा है। मुझे यह कला मानव की प्रकृति पर विजय की चाह का प्रतीक लगती है…. इन वामन रूपों में कितनी तापस भव्यता समाई है ….इनकी मौन भाषा कह रही है-धीरे-धीरे रे मन धीरे सब कुछ होय …जीवन में कठिन परिश्रम और धैर्य से ही परिणाम सुनिश्चित और सुखद होते हैं।”

लेखिका को पेड़ों का यह लघुकृत रूप अध्यात्म प्रेरित लगता है – जैसे बोनसाई पेड़ों के लघु है वैसे ही विराट शक्ति का लघुत्तम रूप हम सभी हैं। (पृष्ठ 130-131)

पर्यटन के नक्शे पर होने के बावजूद गणपति आश्रम से अधिकांश पर्यटक अपरिचित हैं। मैसूर जाकर भी इसके आनंद से वंचित रह जाते हैं, इस दृष्टि से यह यात्रा वृत्तांत अति महत्त्वपूर्ण है।

स्तानुमालायन मंदिर के वृतांत में लेखिका पाठकों को विश्वास दिलाता है कि सृष्टि की सबसे बड़ी शक्ति भक्ति है जहां भक्ति के साथ कल विश्वास और प्रेम का संबंध में होता है वही दिव्य सौंदर्य अवतरित होता है यहां मेरा मानना है कि दिव्य सौंदर्य अवतरित होकर जब आत्मा को दानिता करता है तो दिव्यनाद के अनुभव का प्रारंभ होता है।

 बेंगलुरु से 100 किलोमीटर  दूर भीमेश्वरी का वर्णन भी मनोहारी और अनुपम है – “सूरज तेज गति से रंग बिखरते हुए पूर्व की सीढ़ियांँ चढ़ रहा था…..  सूर्य देव आपका कोमल प्रकाश मन के कोने-कोने को आलोकित करते हुए नई शक्ति, तेज और सकारात्मक ऊर्जा से भर दे…. प्रकृति की सभी शक्तियांँ हमारी सहायक बनें।” (पृष्ठ 141) ये पंक्तियांँ  किसी मंत्र दृष्टा ऋषिका की ऋचार्ओं जैसी भासमान है।

सैलानियों के स्वर्ग गोवा का वर्णन हम कई स्थानों पर पढ़ते हैं पर सौंदर्य लोक में प्राकृतिक और मानव निर्मित सौंदर्य गंगा जमुना के संगम की तरह निश्चल और तरल बन गए हैं लेखिका कौशल है कि गोवा के स्कूल चैतन्य पर उनके कवि मन हावी है इसीलिए उनका गद्य यहांँ भी काव्य का आनंद देता है- “यहांँ हमने रंगीनियों से भरे सागर तट देखे, तो एकांत तटों की शांति से आंतरिक ऊर्जा को समृद्ध किया… सागर की लहरों पर नाचती नदियों की प्रीति को देखा।”

अविस्मरणीय है यह यात्रा वृतांत पाठकों के लिए और हृदयंगम करने योग्य इन वृतांतों की लावण्यमयी भाषा। शब्द ब्रह्म का माधुर्य और प्रसाद इस तरह बिखरा है की कभी भी कहीं से भी पकड़ लो। सभी वृत्तांतों में औचित्य, सारल्य,तारल्य के साथ शब्द बने ठने भी लगते हैं। बीच-बीच में संवादों में उजले हास्य की दामिनी पाठक के चेहरे पर हास्य का लास्य भी बिखेर रही है।

लेखिका के निजी विचार और चिंतन बीच-बीच में वृतांतों को दर्शनिकता का पुट दे रहे हैं। इन वृत्तांतों में लेखिका का कवि मन, प्राध्यापकीय स्वभाव, उदात्त विचारक रूप और माता का कोमल हृदय प्रतिबिम्बित है। उनकी प्रज्ञा और स्वचेतना से प्रकटी  सूक्तियांँ भी अति महत्त्वपूर्ण है, दो उदाहरण देखिए – मानव जब भी मर्यादाहीन हो अतिचार करने लगता है तो सागर भी पाठ पढ़ने के लिए मर्यादा छोड़ता है (पृष्ठ 42)

जीवन में प्रेम और विश्वास से सुंदर क्या है? (पृष्ठ 22)

संक्षेप में ‘सौंदर्य लोक में’ (यात्रा वृत्तांत) पुस्तक माँ भारती को अर्पित सुवासित स्वर्ण कमल है।

समीक्षक डॉ जया पाठक

अध्यक्ष हिंदी साहित्य भारती, झाबुआ।

पूर्व प्राध्यापक एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष

शासकीय महाविद्यालय थांदला, मध्यप्रदेश