स्वामी दयानंद सरस्वती की जयंती पर उनकी शिक्षाओ को बताता यह आलेख आप भी पढ़िए …

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उस समय देश में अशांति तथा भय का आतंक था|लोगों में आत्म-सम्मान का अभाव था, अधार्मिक भाव पनप रहे थे-धर्म के नाम पर पाखंड था,जिसके कारण भारत-भूमि अनेक कुरीतियों से कंटकाकीर्ण हो चुकी थी|सैकड़ों चिताएं भारतीय देवियों की सजीव देह को धधका रही थीं|अधर्म तथा अज्ञान की काली निशा में भारतीय बेसुध पड़े सो रहे थे|
जन्ममात्र से ब्राह्मण(कर्म से चाहे चांडाल) कहलाने वाले धर्म के ठेकेदार बने हुए थे| ज्योतिष की लीला,मृतक श्राद्ध,पत्थर या मूर्तिपूजा ने ब्रह्मबल और क्षात्रबल को जड़वत् बना दिया था| लोगों का बहुत बड़ा भाग धर्मग्रंथों को पढ़ना तो दूर उनको सुनने का अधिकारी भी नहीं माना जाता था|
नारी जाति की दीन अवस्था थी|ऐसी दुर्दशा के समय एक ऐसे समाज सुधारक का जन्म हुआ जिसने आजीवन नैष्टिक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए वैदिक आर्ष ग्रंथों के स्वाध्याय से अपने मन-बुद्धि को निर्मल किया और उन्होंने समाज में व्याप्त इन बुराइयों पर निर्भीकता से प्रहार किया,जिसके लिए उनके अनेकों बार कष्ट सहने पड़े|इसी सत्य के लिए उन्होंने उन्हें 17 बार विष दिया गया परन्तु उन्होंने अंत तक सत्य का परित्याग नहीं किया| 12 फरवरी 1824 को काठियावाड़(गुजरात) के टंकारा में एक कर्षण तिवारी के परिवार में बालक मूलशंकर का जन्म हुआ जो बाद में महर्षि दयानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए| बालक मूलशंकर बचपन से जिज्ञासु और प्रतिभाशाली थे| 14 वर्ष की उम्र में उनके पिताजी के कहने पर उन्होंने शिवरात्रि का व्रत रखने की आज्ञा दी लेकिन वह नहीं माने तब उनको व्रत के सुखों का सुनाया गया इससे उनके ह्रदय में इच्छा उत्पन्न हुई लेकिन जब उन्होंने रात में शिव की मूर्ति पर चूहों को कूदते देखा तो उनकी कुशाग्र बुद्धि में यह भाव आ गया की में इस जड़ की पूजा से उस परमेश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता| जब वे 16 वर्ष के थे तब उनके परिवार में उनके बहन की और जब वे 19 वर्षे के थे तब उनके चाचा की मृत्यु हो गई बस यहीं से उनके मन में वैराग्य के भावना जाग्रत हो गई बस फिर क्या था रात्रि में घर-परिवार को उस सत्य की खोज के लिए सदा के लिए छोड़ दिया| जीवन की इस यात्रा में उन्होंने 23 वर्ष की उम्र में आजीवन नैष्टिक ब्रह्मचर्य रहने का व्रत लिया| कुछ समय बाद उन्होंने स्वामी पूर्णानंद सरस्वती से सन्यास की दीक्षा ली और यहाँ से इनका नाम ‘दयानंद सरस्वती’ रखा गया|लेकिन स्वामीजी के दर्शन में मूल परिवर्तन हुआ मथुरा के स्वामी विरजानंद जी के सम्पर्क में आने के बाद यहाँ उनको शिक्षा देने के बाद के बाद गुरु विरजानंद ने इनसे दक्षिणा में में माँगते हुए आशीर्वाद दिया-“भारत देश में दीन-हीन जन कई प्रकार से दुःख पा रहे हैं,जाओ उनका उद्धार करो|मत-मतान्तरों के कारण जो कुरीतियाँ इस देश में प्रचलित हो गईं हैं उनको दूर कर उनकी बिगड़ी हुई दशा को सुधारो तथा उनका उपकार करो|”
स्वामी दयानंद सरस्वती का समाज के लिए प्रमुख योगदान-
१.स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान- स्वामीजी ने ही सर्वप्रथम स्वदेशी राज्य की अवधारणा की
स्वतंत्रता को जन्म दिया और उनके दर्शन से प्रभावित होकर अनेकों युवा देश के स्वतंत्रता
आन्दोलन में कूद पड़े जिनमें प्रमुख रूप से-लाला लाजपत राय, श्यामजीकृष्ण वर्मा,रामप्रसाद
विस्मिल आदि अनेक युवा प्रभावित हुए|
२.शिक्षा का प्रसार- शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने शिक्षा को समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए
आवश्यक बताया और उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज ने अनेक गुरुकुलों की स्थापना
की जो आज भी देश के अनेक भागों में संचालित हैं|
३.स्त्री शिक्षा- उन्होंने स्त्री शिक्षा का समर्थन किया, उन्होंने कहा की माता निर्माता भवति
यदि माता सुशिक्षित और संस्कारित होगी तो वह कई पीढ़ियों का उपकार करेगी |
४.अछूतोद्धार- उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त अस्पृश्यता का जमकर विरोध किया और
इसे उन्होंने अवैदिक किया |
५.विधवा विवाह-उन्होंने विधवा-विवाह को प्रोत्साहन दिया ताकि वो अपना और अपनी संतान
का जीवन-यापन सुखी होकर निर्वाह कर सके|
६.धार्मिक सुधार-धर्म में व्याप्त जड़-पूजा के स्थान पर एक परमात्मा की उपासना और कर्मवाद
पर जोर दिया ,उनके अनुसार कर्म के फलों को प्रत्येक व्यक्ति को भोगना ही पड़ता है
उन्होंने पाप क्षमा करने वाले गुरुओं और ग्रंथों को अवैदिक और मिथ्या सिद्ध किया|उन्होंने
अपने कई शास्त्रार्थों में तत्कालीन पंडितों को परास्त किया|
७.चरित्र निर्माण-वैदिक संस्कारों के माध्यम से उन्होंने व्यक्ति की चरित्र शिक्षा पर जोर दिया
उनका मानना था जब तक व्यक्ति अपने चरित्र में नैतिकता और सुचिता नहीं लाता तब
तक वह अपना और अपने समाज का भला नहीं कर सकता |
८. ठगप्रथाओं का उन्मूलन -स्वामी दयानंद ने अपने अमर ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में धर्म के
नाम पर बाबाओं के द्वारा किये जाने वाले चमत्कारों का गलत सिद्ध किया
९.मृतक श्राद्ध और तर्पण -उन्होंने बताया की जीवित माँ-बाप की हर प्रकार से तृप्ति करना
ही ‘तर्पण’ और उनमें श्रद्धा रखना ही ‘श्राद्ध’ है| मरने के पश्चात किये जाने वाले कर्म
पाखंड मात्र ही हैं|
८.कर्मवाद पर विश्वास- उन्होंने लोगों को भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद पर जोर दिया उन्होंने वेदों के माध्यम से यह सिद्ध किया कि व्यक्ति कर्म से ही अपने भाग्य का निर्माण करता है| इस प्रकार महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने समाज के लिए कई अविस्मरणीय कार्य किये| उनकी शिक्षाएं आज भारत ही नहीं दुनियां के कई देशों में प्रासंगिक हैं,उनके द्वारा संस्थापित ‘आर्यसमाज’ आज भी शिक्षा और समाज सुधार के क्षेत्र में देश-विदेश में
उल्लेखनीय कार्य कर रहा है | आवश्यकता है हम अपनी भावी पीढी के विद्यार्थियों को उनकी शिक्षाओं और आदर्शों से प्रेरित कर उनको लाभान्वित कर सके हैं|