सीएम के तौर पर नीतीश कुमार के नए कार्यकाल में उनका दबदबा घट सकता है और लालू यादव गठबंधन पर हावी हो सकते हैं। पिछली दो बार की तरह इस बार कुमार पास नंबर भी नहीं है और उनके राष्ट्रीय स्तर पर उतरने के संकेतों के बीच कांग्रेस भी लालू की तरफ झुक सकती है। बिहार के वोटरों ने जेडी(यू), आरजेडी और कांग्रेस वाले महागठबंधन के पक्ष में जनादेश दिया है। छठ के बाद नीतीश कुमार अपनी टीम के साथ शपथ लेंगे।
इस बार विकास के नीतीश के अजेंडे को झटका लग सकता है। इसकी वजह बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन की हार नहीं है। एनडीए भले ही दलील दे दे कि उसकी हार से राज्य के विकास को चोट पहुंच सकती है, लेकिन यह सही तस्वीर नहीं है। यह सच है कि बिहार में बदलाव के अभियान में बीजेपी की टीम भी नीतीश के साथ थी। दरअसल, नीतीश अब पिछले 10 साल की तुलना में कमजोर सीएम होंगे। इसकी वजह यह है कि सरकार में ड्राइवर की सीट पर नीतीश नहीं बल्कि आरजेडी चीफ लालू यादव होंगे। 2015 के नीतीश कुमार 2005 और 2010 से काफी अलग हैं।
यह सच है कि नीतीश ने खुद से बिहार के बदलाव की कहानी को अंजाम नहीं दिया है। उनके पास सुशील कुमार मोदी की अगुवाई में बीजेपी का सहयोग था। जेडी(यू) और बीजेपी दोनों पार्टियां की दिलचस्पी बिहार की कहानी को बदलने में थी। हालांकि, इस बात में कोई दो राय नहीं है कि गठबंधन में नीतीश कुमार का दबदबा था। उनके पास संख्या भी थी। नीतीश की पार्टी जेडी(यू) के पास 2010 में राज्य की कुल 243 विधानसभा सीटों में से 115 सीटें थीं। नंबरों के मामले में बढ़त के कारण ही नीतीश के लिए 2013 में एनडीए से बाहर निकलना मुमकिन हो सका। मौजूदा हालत में यह मुमकिन नहीं होगा।
जेडी(यू) 71 सीटों के साथ महागठबंधन में दूसरे नंबर पर है, जबकि लालू यादव के पास 80 सीटें हैं। पिछले लोकसभा चुनावों से उबर रही कांग्रेस को इस चुनाव में 27 सीटें मिली हैं। कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है और उसका दायरा बिहार से बाहर भी है। नीतीश कुमार के राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर उभरने की फुसफुसाहट के बीच यह मुमकिन है कि कांग्रेस का रुझान लालू यादव की तरफ हो जाए। इस बार नीतीश भले ही मुख्यमंत्री बनेंगे, लेकिन उनकी पार्टी की हैसियत दबदबे वाली नहीं होगी। इस जगह पर लालू काबिज हो गए हैं।
नीतीश के पुराने पार्टनर बीजेपी के उलट आरजेडी की विकास को लेकर प्रतिबद्धता सवालों के घेरे में है। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान लालू का फोकस निजी हमलों, आरक्षण, पिछड़ा बनाम अगड़ा जैसे मुद्दों पर रहा, जिन्हें डिवेलपमेंट अजेंडे के दायरे में नहीं रखा जा सकता। नीतीश के पास कम सीटें होने का मतलब यह है कि उन्हें आरजेडी की मांगों को लेकर लगातार संतुलन बनाए रखना होगा। नीतीश कुमार के लिए लगातार तीसरी बार सीएम बनना निश्चित तौर पर खुशी की बात होगी, लेकिन इस खुशी की खुमारी खत्म होने के बाद उनके लिए डगर आसान नहीं होगी।