झाबुआ-अलीराजपुर: कांग्रेस में दो फाड, पंचायत चुनावों में विपक्ष के बजाए अपनों को ही पटखनी देने का खेल, अहम की लड़ाई चरम पर
झाबुआ-अलीराजपुर मे दो फाड हुई कांग्रेस
पंचायत चुनाव मे अहम की लडाई मे जुटे कांग्रेसी
झाबुआ आजतक डेस्क:
मध्य प्रदेश में कांग्रेस के सत्ता से बाहर रहने के मौके आए तो कई बार बेहद मामूली से बहुमत पर कांग्रेस सत्ता में काबिज रही। आजादी के बाद कांग्रेस के लिए उतार-चढ़ाव के कई दौर आए, लेकिन झाबुआ अंचल में कांग्रेस के मजबूत किले में सेंध कभी नहीं लगी। कांग्रेस के इस मजबूत गढ़ में करीब एक दशक पहले चट्टान खिसकना शुरू हुई और अब यह विरोधी खेमे के लिए अभेद किले के रूप में बदलता जा रहा है। विपरीत हालात और गिरते जनाधार के बावजूद कांग्रेसी शायद सबक लेने के लिए तैयार नहीं दिख रहे है। कम से कम पंचायत चुनाव को लेकर पार्टी के भीतर जो हालात बने हैं वो कुछ यूं ही दास्तां बयां कर रहे है।
कांग्रेस नेताओं के बीच टकराव चरम पर पहुंच गया है। आम लोगों के हितों और उनकी समस्याओं के बारे में बात करने के बजाए नेताओं में अहम सातवें आसमान तक पहुंच गया है। मौजूदा हालत में पंचायत चुनाव में भी कांग्रेस के सूपड़ा साफ होने और बीजेपी के परचम लहराने की संभावनाएं बन रही है। झाबुआ और आलीराजपुर अंचल में सबसे पहले बात झाबुआ की।
झाबुआ मे भूरिया से अलग हुई जेवियर-वालसिंह कांग्रेस:
झाबुआ सदियो से कांग्रेस का गढ माना जाता रहा है विगत विधानसभा चुनाव मे कलावती भुरिया यहाँ से कांग्रेस की बागी बनकर चुनाव लडी नतीजा कांग्रेस के जेवियर मेडा को पराजय हाथ लगी। जेवियर इस हार का दर्द अब तक नहीं भूले है। अब उन्हें विधानसभा में मिली राजनीतिक हार का बदला लेने का मौका हाथ लगा है ऐसे में इन पंचायत चुनाव मे जेवियर मेडा चुनावी बिसात में अपने मोहरों को कुछ इस तरह से चल रहे है कि भूरिया को शह और मात दी जा सके। पार्टी के भीतर ही विरोधी खेमे से मिल रही इस सियासी चुनौती से कलावती-कांतिलाल भूरिया को खासी परेशानी आ सकती है।
विरोधी लॉबी की पहली कोशिश यह नजर आ रही है कि कलावती को जीतने ही नहीं दिया जाए। यदि वह चुनाव जीत भी जाती है तो कम से कम उन्हें जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी से दूर रख जाए। पेटलावद विधानसभा से हारे कांग्रेसी वालसिंह भी खुद की उपेक्षा से नाराज है और जेवियर मैडा के साथ खड़े दिख रहे है।
हालांकि, यह चुनावी संग्राम झाबुआ विधानसभा में छिड़ा हुआ है लेकिन इस खींचतान का असर पेटलावद विधानसभा क्षेत्र में दिख रहा है। कांग्रेस के भीतर चल रहे शह और मात के इस खेल का भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा मिलता दिख रहा है। जनपद के वार्डो मे भी कलावती विरुद्ध जेवियर-वालसिंह कांग्रेस की यह भिडंत जारी है। एक दूसरे को हराने के लिए जहां भाजपा का मजबूत प्रत्याशी है उसे परदे के पीछे मदद की जा रही है। लगातार मिल रही चुनावी हार के बावजूद फिलहाल पार्टी इससे कोई सबक लेती नहीं दिख रही है और विपक्ष के बजाए खुद के लड़ने में ही उलझी हुई नजर आ रही है। यह जंग फिलहाल थमती नहीं दिख रही है।
अलीराजपुर मे खुलकर सामने आ गयी गुटबाजी:
झाबुआ में जहां कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई परदे के पीछे लड़ी जा रही है। वहीं यहां हालात बिलकुल विपरीत है। यहां एक दूसरे को पटखनी देने का खेल खुलकर खेला जा रहा है। यहाँ महेश पटेल कांग्रेस के अभी तक खेवनहार थे लेकिन जैसै ही कांतिलाल भूरिया ने यहाँ कांग्रेस का चेहरा बदलने की कोशिश शुरु की महेश पटेल ने खुद का एक अलग समूह बना लिया।
पटेल ने जिला से लेकर जनपद और सरपंच से लेकर पंच पदो तक अपनी पैनल खडी कर दी। इसी बीच प्रदेश कांग्रेस के पर्यवेक्षक अरविंद जोशी ने जिला और जनपद पंचायतो के लिए कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशियो की सूची जारी की तो जवाब मे महेश पटेल की ओर से नई सूची जारी की गई। विवाद बढ़ा तो पहले सुलह और समझौता की पेशकश की गई लेकिन जब भूरिया को अपने मनमाफिक बात बनती नहीं दिखी तो उन्होंने सरदार पटेल को कांग्रेस का नया जिला अध्यक्ष बनवा दिया।
राजनीतिक हलकों में जो चर्चा है उसके मुताबिक विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव मे मिल रही लगातार हार के बाद कांतिलाल भूरिया यहां कांग्रेस का चेहरा बदलना चाहते है। अभी तक बोरखड का पटेल परिवार कांग्रेस का प्रतीक रहा है। जिले के अधिकांश कांग्रेसी इसी परिवार से जुडे है ऐसे में इस ताजी जुतमपैजार के बीच क्या कांग्रेस का नेतृत्व परिवर्तन मुहिम कामयाब हो पाएगी, इस सवाल से कही न कही भूरिया की साख जुड़ी है। भले ही इसके लिए पार्टी की साख दांव पर लग गई हो।
सोंडवा क्षेत्र के शमशेरसिह और सरदार पटेल मे ही कांतिलाल भूरिया अपनी कांग्रेस का भविष्य तलाश रहे है ऐसे मे यदि भदु पचाया उस समय (विधानसभा चुनाव के वक्त) कांग्रेस नहीं छोड़ते तो शायद उन्हें कांग्रेस जिले मे अपना चेहरा बना लेती। लेकिन अब भदु भाजपा के हो चुके है। अब यह बात अलग है कि भदु को भाजपा से क्या वायदे अनुसार मिला है या नहीं।
बहरहाल, अगर लोकतंत्र के इस सबसे प्रथम संसद यानी पंचायत राज संस्थाओं में कांग्रेस आपसी खींचतान से हार गई तो फिर इस आदिवासी अंचल मे कांग्रेस की वापसी लगभग नामुमकिन होगी। क्या पार्टी अपने इस मजबूत गढ़ को यूं ही विपक्षी का अभेद गढ़ बनने से रोक सकेगी, पार्टी के भीतर के हालात तो शायद ऐसे संकेत नहीं दे रहे है।