लेखक विकास संवाद संस्था के कुपोषण ( पोषण की सुरक्षा ) विषय के शोधार्थी है ।
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चंद्रभान सिंह भदौरिया ।।
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कुपोषण से जंग लड़ने के सरकारी प्रयास कागजों पर कितने भी शानदार दिखते हो मगर जमीन पर हकीकत कुछ ओर है भिलाला बहुल अलीराजपुर, धार, बड़वानी आदि जिलों की बात करे तो साफ दिखता है कि भोपाल के ” वातानुकूलित कमरों मे बैठकर बनाए जाने वाली योजनाए जमीन पर कामयाब नही होती अलबत्ता ” रेडी टु इट” के नाम पर सब कुछ ठीक नही होत रहा । यु तो सरकार के कई अधिकारी अन्य प्रदेशों की योजनाओ का अध्ययन करने जाते है ओर अच्छी योजनाए मामूली संशोधन के साथ स्वीकार भी की जाती है मगर आदिवासी अंचल मे कुपोषण के दूसरे राज्यों के फार्मूले अपनाने से सरकार डरती है ।
दक्षिण भारत मे अधिकांश राज्यों में अंडा
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इसलिए डरती है प्रदेश सरकार
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दरअसल राजनीत में लोकतंत्र का मतलब वोट बैंक रह गया है मध्यप्रदेश के लाखो दलित ओर आदिवासी बच्चो को कुपोषण मुक्त करवाने में अंडा आंगनबाड़ीयों में एक सही ओर उपयोगी फुड हो सकता है मगर सरकार इस आरोप से बचना चाहती है कि प्रदेश सरकार खुद ” मांसाहार ” को बढावा दे रही है हास्यास्पद बात यह है कि जो लोग आंगनबाड़ीयों मे अंडा देने के प्रस्ताव या शुरुआती चर्चाओं का विरोध करते है उनके अपने बच्चे ना तो कुपोषित है ना ही कमजोर बल्कि उनके से कुछ के बच्चे तो अतिपोषण ( मोटापे) से जुझ रहे होते है फिर भी सरकार इन सब से डरकर कुपोषण के खिलाफ जंग मे ” अंडा” रुपी ” ब्रम्हास्त्र” का इस्तेमाल से डर रही है । भिलाला बहुल अंचल मे काम करने वाले ” मुकेश कुमार” कहते है कि यह अफसोसजनक है कि मध्यप्रदेश मे कुपोषण दूर कैसे किया जाये यह वह तय करते है जो सरकार को ” धार्मिक नैतिकता ” के नाम पर डराने मे कामयाब हो जाते है ।
दूध काम प्रयोग तो अंचल मे हुआ विफल
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केले ओर लोकल फूड पर जोर की जरुरत
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