18वीं सदी के क्रांति के अग्रदूत बिरसा मुंडा 21वीं सदी में हर आदिवासी के आदर्श भगवान बिरसा मुंडा जयंती पर विशेष
शिवा रावत उमराली
अलीराजपुर जिले में गांव, कस्बों सहित 3 जगहों पर बडे स्तर जोबट, अ_ा, कठीवाड़ा भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर वृहद आयोजन होंगे। आदिवासी समाज जन एवं जिला कोर कमेटी के सदस्यों के द्वारा टंटया मामा मूर्ति पर सुबह 10 बजे माल्यापर्ण कर रैली के रूप में पहुंचेगे। यू तो इतिहास के पन्नों में हजारों आदिवासी योद्धाओं का आजादी के आंदोलन में योगदान छुपा है ऐसे ही योद्धाओं में एक नेतृत्वकर्ता जो 18 वीं सदी के क्रांति के अग्रदूत आदिवासियों की आवाज बनकर उभरा एक युवा जिसने मात्र 25 वर्ष की उम्र में अपनी अमिट छाप विश्व पटल पर छोड़ी है ।
बिरसा मुंडा पिता का नाम सुगना मुंडा, माता का नाम करमी जन्म 15 नवंबर सन 1875 उलिहातू जिला रांची तत्कालीन राज्य बिहार बिरसा के दैनिक जीवनचर्या वैसे ही थी जो एक आदिवासी परिवार में एक आदिवासी बालक की होती है । छोटे बच्चों को स्कूल की छुट्टी के दिन सुबह की राबड़ी पिला कर उन्हें अपने मवेशियों को जंगल में चराने ले जाया जाना होता है बिरसा भी स्कूल की छुट्टी के दिनों में अपने मवेशियों को चराने ले जाया करते थे। उस समय अंग्रेजो जमीदारों जागीरदारों का अत्याचार चरम पर था। दूसरी ओर समाज में भयंकर महामारी का प्रकोप था यह सब देख कर बिरसा मुंडा बहुत व्यथित थे। जब वे इस चिंतन में डूबे होते थे और समस्या का समाधान ढूंढने की कोशिश करते थे वही उनकी मवेशिया चरते चरते जमीदारों को खेतों में चले जाती थी जिसका दण्ड भी बिरसा को चुकाना पड़ता था।उस समय जमीदारों जागीरदारों का इतना बोलबाला था यदि जागीरदार के यहां बच्चा पैदा हुआ तो उस खुशी के मौके पर धूमधाम के लिए कोलो आदिवासियों को ही टैक्स देना होता था यदि जागीरदार के यहां कोई म्रत्यु हो गई तो मृतव्यक्ति के शवसंस्कार के लिए कोलो पर टैक्स बढ़ाया जाता था।
बिरसा का क्रांतिकारी बदलाव
सन 1886 बिरसा को उस समय सबसे बड़ा धक्का लगा जब 1886 में मिशनरियों से सरदारों का संबंध विच्छेद हो गया जिसकी बिरसा ने तीखे शब्दों में आलोचना की जिसके परिणाम स्वरूप बिरसा मुंडा को स्कूल से निकाल दिया गया यही उसके जीवन का यह एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुवा बिरसा ने आवाज बुलंद की साहब . साहब एक टोपी अर्थात अंग्रेज और मिशनरी पादरी एक है लगातार शोषण अत्याचार अपनी संस्कृति परंपरा जल जंगल जमीन को खतरे में देखकर 1886 में अंग्रेजों द्वारा जमीदारी प्रथा राजस्व वसूली व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी साथ ही साथ भयंकर महामारी से निजात पाने हेतु बिरसा ने जन जागरण का कार्य प्रारंभ किया और देशी जड़ी बूटियों से मरीजों का इलाज किया जिससे मुंडा लोगों में आशा की किरण जगी और लोग दूर.दूर तक बिरसा मुंडा को जानने लगे ओर बिरसा मुंडा से जुडऩे लगे बिरसा मुंडा को दिव्य शक्ति प्राप्त थी उनके पास रखे एक अनाज के ढेर से कभी भी अनाज खत्म नहीं होता था अब बिरसा रोगियों के रोग एवं दुखियों के दुख और भूखों की भूख को हरणकर्ता बन गए थे अब साधारण बिरसा मुंडा भगवान बिरसा मुंडा बन गये थे
सन 1896 में अकाल पड़ा तब बिरसा मुण्डा ने लोगो को अंग्रेजों के आतंक को इन पंक्तियों से समझाया अंग्रेजों के राज में जीना कितना मुश्किल
जमीदार बैठा है गांव में, दरवाजे में बैठा कोतवाल, बगीचे में बैठा पटवारी और खेतों में सरकार अंग्रेजों के राज में जीना है कितना मुश्किलएबिरसा ने लोगों से आह्वान किया अब सरकार को ना कर देना है और ना ही उनकी बात माननी है बिरसा भगवान के साथ.साथ बिरसा राज का मालिक है अम्बुआ दिशुम अम्बुआ राज