होली का हिस्सा है गोट परंपरा, घर-घर गूंजी ढोल-मंजीरे की लय-ताल

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सलमान शैख़@ पेटलावद

होलिका दहन एक दिन के लिए होता है लेकिन इसी दिन से दशमी (दशामाता पूजन) तक यह त्योहार विभिन्न रूपो में मनाया जाता है। इसी क्रम में एक है गोट मांगने की परंपरा। इसमें धुलेेंडी के दूसरे दिन आदिवासी समाज के युवा, वृद्ध अथवा साथ-सहयोगियों के झुंठ बनाकर ढोल-मांदल की थाप पर साथ-साथ नगर में निकलकर अपने परिचित, व्यापारियों व दुकानों, घरों पर जाकर होली के गीत गाते हुए गोट वसूली करते है।
आज शुकवार को यह क्रम दिनभर चलता रहा। एक के बाद एक सुबह से आसपास के ग्रामीण इलाको से ग्रामीण शहर में गोट वसूली करने के लिए निकले। किसी ने उन्हें 10 तो किसी ने 20, तो किसी ने 50 रूपए गोट के रूप में भेंट किए। कोई राजा-रानी के रूप में तो कोई डाकू और लूटेरे के रूप धारण करकर गोट वसूली करने निकला।

*प्रेमपूर्वक होती है वसूली:*
यह वसूली अधिकतर प्रेमपूर्वक की जाती है। इसमें जबरन नहीं की जाती है। यह होलिका अपने वर्षभर लेन-देन वाले के यहां निश्चित की जाती है, लेकिन बदलते समय में इस प्रथा में कमी भी आई है। वर्ना पहले यह गोट प्रथा सप्तमी तक चलती थी। समय के साथ इसमें कमी आने लगी है। इस गोट वसूली का दूसरा पहलू आपसी प्रेम व सद्भावना भी है, क्योंकि इस जो भी होलिकां दिनभर में वसूली करती है। इस राशि से शाम को सभी एकत्र होकर सेव-परमल अथवा अन्य खाने-पीने की वस्तुएं क्रय करकर सभी महिला-पुरूष व बच्चे एक साथ मिलकर प्रेम-पूर्वक खाते है।
*यह गोट वसूली क्षैत्र के प्राय* बड़े कस्बो में की जाती है, लेकिन कभी भी बड़े विवाद की स्थिति सामने नही आई। कई ग्रामीण होलिका में पुरूष दंपत्ति के वेष में होली के लोग गीतो पर थिरकते हुए गोट वसूली के लिए नगर में घुमते दिखाई देते है। होली के बाद एक सप्ताह को उजाडिय़ा दिन कहते है। अर्थात बाजारो में सन्नाटा रहता है। गांवां के लोग होली की मस्ती में मस्त रहते है। व्यापार धंधा भी मंद रEहता है। शीतला सप्तमी के एक दिन पूर्व दुकानों पर फिर चहल पहल हो जाती है।

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