कठ्ठीवाडा, गोपाल राठौर की रिपोर्टः अच्छे दिन का जुमला पिछले एक साल में खासा लोकप्रिय हुआ था और हर किसी की जुबां पर चढ़ गया था। अच्छे दिन आए या नहीं यह लंबी बहस का विषय हो सकता है लेकिन झाबुआ आजतक आपके सामने एक ऐसे गांव की तस्वीर ला रहा है जो आजादी के बाद से एक अदद अच्छे दिन के लिए तरस रहा है। केन्द्र और राज्य में सत्ता बदल गई लेकिन नहीं बदली तो इस गांव की तस्वीर।
हम बात कर रहे हैं कठ्ठीवाड़ा तहसील के तहत आने वाले ग्राम काछला की। दुनिया नित नए तरीके से रोशन हो रही है लेकिन गुजरात सीमा से लगा मध्य प्रदेश का यह गांव बिजली के लिए तरस रहा है। यहां कभी बिजली पहुंची ही नहीं। स्थानीय ग्रामीणों ने अपने स्तर पर कई कोशिशों की। स्थानीय जनप्रतिनिधि से लेकर राष्ट्रपति तक हर जगह गुहार लगाई, लेकिन फिर भी यह गांव अंधेरे में रोशनी की तलाश कर रहा है। देश के पहले राष्ट्रपति से लगाई जा रही गुहार का दौर अब भी जारी है लेकिन उम्मीदें रोशन होने का नाम नहीं ले रही है।
बात केवल बिजली की नहीं है। हर बुनियादी सुविधा के मामले में यह गांव पिछड़ा हुआ है। विकास की लौ यहां तक पहुंची ही नहीं है। तहसील मुख्यालय से यह गांव महज नौ किलोमीटर दूर है। तहसील को सीधा जोड़ने के लिए नौ साल पहले कठ्ठीवाडा से काछला सड़क निर्माण का काम शुरू हुआ था। ग्रामीणों को विकास की पहली उम्मीद जगी थी लेकिन नौ साल बाद भी यह सड़क अधूरी है। इसका निर्माण इतना समय बीत जाने के बावजूद पूरा नहीं हो सका। इस सड़क को लेकर ग्रामीणों ने एक साल पहले राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भी पत्र लिखा था लेकिन फिर भी सड़क नहीं बन सकी।
यह गांव स्कूल चलें हम अभियान जैसे सरकारी जुमलों की भी पोल खोल रहा है। बिजली और सड़क के अलावा यह गांव शिक्षा के मामले में भी सरकारी अनदेखी का शिकार है। यहां सबसे ज्यादा शिक्षित महज आठवीं तक पढ़ा हुआ है। यहां का सरकारी स्कूल महज एक अतिथि शिक्षक के भरोसे संचालित हो रहा है।
यह गांव मोबाइल नेटवर्क से भी नहीं जुड़ पाया है। मध्य प्रदेश का यह गांव गुजरात सीमा से बिलकुल सटा हुआ है। प्रादेशिक सरहद से दूसरी और हर सुविधा है और वहां के विकास के मॉडल की दुनिया भर में चर्चा होती है। ऐसे में यहां से कई बार आवाज भी उठती रही है कि इस गांव का विलय गुजरात में कर दिया जाए। क्या हमारें जनप्रतिनिधियों की नींद खुलेगी या उनके लिए यह महज मतदाता है जिनकी सुविधाओं से उन्हें कोई सरोकार नहीं।