श्रमिकों के प्रति सरकार की संवेदनाएं शून्य, तंत्र अपनी भूमिका निभाने में क्यों हो रहा विफल…?

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रितेश गुप्ता, थांदला

देश के कोने कोने से आ रही श्रमिकों की ह्दय विदारक तस्वीरें कहीं ना कहीं हमारी सरकारों व मानवता तार तार हो रही है। सरकारों के प्रबंध शून्य दिखाई दे रहे हैं और श्रमिक सरकारों को श्रापित करता कोई रेलों की पटरियों पर मीलों पैदल चल रहा है तो कोई दूधमुंहेें बच्चों को लेकर तपती धूप में जल रहा है। इन सब के मन में केवल एक ही चाह है की अपने घर को पहुंचे श्रमिकों का पलायन अब तक बहुत सुना था लेकिन श्रमिकों के घर वापसी आज देखी जा रही है। श्रमिकों का सैलाब अगर अपने घरों पर ही बैठ गया भविष्य का विकास पूर्णता थम जाएगा, लेकिन वर्तमान में सरकारों का मुख्य उद्घोष अंत्योदय अंत्योउत्पीडऩ में परिवर्तित होता दिखाई दे रहा है परिस्थितियां भले ही कोरोना जैसी गंभीर बीमारी महामारी से निर्मित हो हुई हो लेकिन इसके लिए कहीं ना कहीं जिम्मेदार तो हमारी सरकार ही है जो उचित समय पर उचित प्रबंधन नहीं कर सकी और यदि आज भी श्रमिक पैदल चलकर अपने घरों की ओर पहुंच रहा है चिलचिलाती धूप में अपने आप को झोंक रहा है तो फिर इस समृद्ध देश का समृद्ध तंत्र थोथा साबित हो रहा है इस देश की समृद्ध और इतनी लंबी प्रशासनिक संरचना के बावजूद अगर आज बीते 40 दिनों में हम श्रमिकों को उनका मुकम्मल मुकाम नहीं पहुंचा सके तो किस व्यवस्था में जी रहे हैं। हम और अपने भविष्य के लिए क्या उम्मीद रखें इस व्यवस्था से बहुत ही गंभीर और विचार नहीं किंतु हृदय विदारक यह तस्वीरें देश के समृद्ध उद्योग नगरों से निकलकर विभिन्न छोटे-छोटे गांव टोलो से होते हुए अपने नियत ठिकाना की और पहुंच रही है भविष्य के लिए संकेत निश्चित तौर पर श्रम दमन के लिए साबित होंगे और यह भी लिखा जाएगा उस समय मैं सरकारे इनके लिए उचित प्रबंध करने में सक्षम नहीं थी श्रमिकों की अंतरात्मा कचोट रही है कुछ तो अपना सब कुछ छोड़कर अपने घर की ओर पहुंच रहे हैं तो कुछ भूखे पेट और सूखे कंधों से रुदन भरे शब्दों में कह रहे हैं कि अब कभी काम पर नहीं जाएंगे गांव में जो भी होगा जैसा भी होगा। वहीं पर करेंगे 1300 किलोमीटर का सफर है तो क्या हुआ साइकिल से 13 दिन 14 दिन या 15 दिन में पहुंच जाएंगे पैदल चलने वाले कह रहे हैं कि 1 दिन तो पहुंचेंगे।
इन तस्वीरों के लिए शब्द शून्य होते जा रहे हैं मुझे सरकार लाचार और बेबस दिखाई दे रही है और तंत्र सब कुछ ठीक करने का झूठा आश्वासन देकर सरकारों को केवल ढानडस बंधा रहा है। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य है कि देश के किसी भी राज्य के पास अपने ऐसे किसी भी नागरिक श्रमिकोंका कोई रिकॉर्ड नहीं है जो अन्य प्रदेशों में जाकर मजदूरी करता है ना हीं ऐसे मजदूरों की रिकॉर्ड की कोई व्यवस्था किसी भी सरकार के पास है जिससे कि इन्हें चिन्हित किया जा सके। श्रम मंत्रालय से लेकर श्रम कानून सारे आज अपने भूमिका में शून्य दिखाई दे रहे हैं।

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