पढ़ाई पर भारी मुनाफे की पाठशाला, भव्य इमारतों में बिकता ज्ञान, अभिभावकों की जेब पर स्कूल संचालक का ‘डाका’, न तो क्रीड़ा, न डांसिंग न सिंगिंग शिक्षक, लेकिन फीस पूरी

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सलमान शैख़, झाबुआ Live..
शहरों के बड़े प्रायवेट स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चों के मातापिता उन स्कूलों की चमकदमक से प्रभावित तो हैं लेकिन उन के द्वारा वसूली जा रही भारी-भरकम फीस से दुखी व परेशान भी हैं। हजारों रुपए खर्च करने के बावजूद बच्चे स्कूल के बाद ट्यूशन पढ़ने को विवश हैं। इतना ही नहीं, शैक्षिक व अशैक्षिक गतिविधियों के नाम पर भी धन बटोरने में ये तथाकथित स्कूल कोताही बरतने से बाज नहीं आते। बातबात पर पैसा, कदमकदम पर डांटफटकार और न्याय की बात करने पर बच्चों को स्कूल से निकाल देने या उन का कैरियर खराब कर देने की धमकी, यही सब कुछ हो रहा है इन धन बटोरने की दुकानों में।
बड़े-बड़े नामधारी स्कूल प्रवेश फौरम की बिक्री से लेकर परीक्षा के नतीजों तक अभिभावकों की जेब पर कैंची चलाने में लगे रहते हैं। इन स्कूलों में बच्चों की शिक्षा व ज्ञान पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है जितना उन की यूनिफ़ार्म, टाई, जूतों, महंगी किताब-कापियों व अन्य स्टेशनरी की खरीद पर दिया जा रहा है। इनकी मनमानी अभिभावकों की जेब पर भारी पड़ रही है।
ये सब बातें तब खुलकर सामने आईं जब गुरुवार को द संस्कार वेली पब्लिक स्कूल में फीस न भरने पर दो बच्चों को यूनिट टेस्ट में देरी से पेपर दिया गया।
आज जब हमने स्कूल की अन्य व्यवस्थाओ की पड़ताल की तो कई चोकाने वाले तथ्य सामने आए। स्कूल संचालक स्कूल फीस, बिल्डिंग फीस, एनुएल फीस, क्रीड़ा फीस, डांसिंग फीस व सिंगिंग फीस आदि के नाम पर अभिभावकों के जेबों पर ‘डाका’ डाल रहे हैं।
न खेल, न डांसिंग और न सिंगिंग शिक्षक, फिर भी फीस पूरी:
सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक स्कूल में न तो खेल शिक्षक है, न डांसिंग और न ही सिंगिंग शिक्षक है, लेकिन अभिभावकों से इसकी फीस पूरी ली जा रही है। जिससे बच्चो को इन गतिविधियो का लाभ नही मिल पा रहा है। यही नही जो शिक्षक यहां अपनी सेवाएं दे रहे है उन्हें समय पर वेतन नही मिल पाता है, लेकिन क्या करे आधा सत्र बीत चुका है ऐसे में शिक्षक जिन्हें वेतन समय पर नही भी मिले तो भी वह चुप ही रहना पसंद करते है। स्कूलों में प्रत्येक वर्ष किसी न किसी एवज में फीस वृद्धि कर अभिभावकों को लूटने का काम धडल्ले से जारी है। इस गोरखधंधे पर सरकार कब अंकुश लगाएगी, यह कोई नहीं जानता।
अभिभावक पेट काट रहे, स्कूल जेब:
कुछ निजी स्कूलों को छोड़ दिया जाए तो बाकि जो निजी स्कूल है वह दाखिले से लेकर बच्चों के बस्ते और ड्रेस तक में तो वसूली करते ही हैं,साल में कई बार इवेंट,फेट, पिकनिक जैसे आयोजनों के नाम पर भी अभिभावकों की जेब काटने से नहीं चूकते। शिक्षा विभाग के नियम इन स्कूलों में हर कदम पर तार-तार होने के बाद भी जिम्मेदारों का मुंह मोड़े रहना व्यवस्था पर तमाम सवाल खड़े करता है। सरकारी स्कूलों की घटिया गुणवत्ता के कारण ही अधिकतर अभिभावक पेट काटकर बच्चों को पढ़ाने के लिए मजबूर हैं। अपने लाडले को अच्छे और अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने की हसरत में तमाम अभिभावकों को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। अधिकतर निजी स्कूलों की किताबें भी सिर्फ स्कूल की तय दुकानों पर ही मिलती हैं।
निजी स्कूल गुणवत्तापरक शिक्षा के उद्देश्य से भटक गए हैं। इनके प्रबंधक अपने स्कूल को एक व्यवसाय के रूप में देखते हैं, ऐसे स्कूलों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।
बढ़ने लगा अब अभिभावको का गुस्सा:
इनकी वसूली के खिलाफ अभिभावकों का गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है। आए दिन निजी स्कूलों में इसी कारण विवाद भी होते रहते हैं, जबकि अधिकतर मामलों में बच्चे के भविष्य को लेकर अभिभावक खामोश रहना ही उचित समझते हैं।
कदमकदम पर लूट:
अभिभावक बच्चों की शिक्षा के लिए मोटी रकम खर्च करने को तो तैयार हैं लेकिन उन्हें स्कूल संचालकों का आए दिन किसी न किसी बहाने से पैसा वसूलना गवारा नहीं है। ये स्कूल इतनी तरह की फीस वसूलते हैं कि अभिभावकों की समझ में ही नहीं आता।
अभिभावकों से हुई बातचीत के मुताबिक, अच्छे स्कूल में ऐडमिशन की इच्छा को स्कूल पूरा भुनाते हैं। अभिभावकों को अपने बच्चे के भविष्य के लिए मजबूरन स्कूल की मनमर्जी के हिसाब से चलना पड़ता है।
बड़ीबड़ी भव्य इमारतों और उस से भी बड़े-बड़े दावों के साथ निजी स्कूल शान से खड़े हैं। हैरत की बात तो यह है कि शिक्षा में सब से आगे बच्चों का सर्वांगीण विकास, कुदरती विकास, नैतिकता, आध्यात्मिकता, अनुशासन और शतप्रतिशत परीक्षा परिणाम जैसे भारीभरकम दावे वाले बड़ेबड़े पब्लिक स्कूलों के प्रशासन की पेशानी पर उस वक्त बल पड़ जाते हैं जब उन से फीस की बात की जाती है। स्कूल की प्रशंसा करते वे नहीं थकते, लेकिन फीस की जानकारी मांगने पर बिफर पड़ते हैं।
निजी स्कूलों के प्रौस्पैक्टस पर अंकित इस तरह की बातें बच्चों के परिजनों को कोरा सब्जबाग दिखाने के लिए होती हैं. चमचमाती भव्य इमारत को देख कर कोई भी जरूर भ्रमित हो सकता है कि इस इमारत में ही भारत के इंटैलीजैंट भविष्य का निर्माण होता है।
आज के दौर में शिक्षा का पूरी तरह व्यवसायीकरण हो चुका है। शिक्षा की दुकानें ही क्या, पूरा का पूरा बाजार सज चुका है। लूट के केंद्र के रूप में तबदील हो चुके इन शिक्षा के मंदिरों के संचालकों को राजनीतिक व प्रशासनिक संरक्षण मिला हुआ है, इसलिए ये स्कूल किसी की परवा नहीं करते और लूट का कोई न कोई नया जरिया अपनाते रहते हैं। असरदार लोगों के बच्चों को फीस में भारी रियायत दे कर वे उन के आंख, कान, मुंह को बंद कर देते हैं।
अभिभावक कहते है कि ‘‘अगर बच्चे को स्कूल में ही मेहनत कराई जाए, तो फिर कोचिंग का क्या मतलब है? पब्लिक स्कूल आजकल क्या पढ़ा रहे हैं? अगर नंबर लाने और रिजल्ट के अच्छे होने का सारा दारोमदार कोचिंग सैंटरों पर निर्भर करता है तो फिर ये पब्लिक स्कूल किस बात का दम भर रहे हैं और बतौर फीस मोटी रकम किस बात की वसूल रहे हैं?’’

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