सलमान शेख, पेटलावद
वक्त बदल रहा हैं और साथ ही बदल रही हैं समाज की सोच।नगर में पहली बार परंपराओं से हटकर एक बेटी ने अपने पिता को मुखाग्नि देकर उनका अंतिम संस्कार किया। मृतक का कोई बेटा नहीं था बल्कि तीन बेटियां थीं।
जहां समाज में आज भी कई लोग बेटियों को बोझ मानते हैं और भ्रूण हत्या तक करने में गुरेज नहीं करते हैं। वहीं, कुछ ऐसी बेटियां भी हैं जो कुरीतियों को तोड़ आगे बढ़ रही हैं।
शमशान पर उस समय लोगों के आंसू छलक पड़े, जब तीनो बेटीयो ने श्मशान में रूढ़ीवादी परंपराओं के बंधन को तोड़ते हुए अपने पिता का अंतिम संस्कार किया। उन्होंने बेटा बनकर हर फर्ज को पूरा किया, जिसकी हर किसी ने तारीफ की। अंतिम संस्कार में वह रोती रही, पापा को याद करती रही, लेकिन बेटे की कमी को हर तरह से पूरा किया।
अंतिम संस्कार में पहुंचे लोगों ने कहा कि एक पिता के लिए अंतिम विदाई इससे अच्छी और क्या हो सकती हैं, जब पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए बेटियों ने बेटे का फर्ज निभाया।
दरअसल, ज्यादातर ऐसी बातें होती हैं कि बेटा कुल का दीपक होता हैं, बेटे के बिना माता-पिता को मुखाग्नि कौन देगा ? लेकिन अब यह बातें अब बीते जमाने की हो गई, यह साबित किया हैं पेटलावद की बेटीयो ने।
मंगलवार को ऐसी ही पुरानी कुरीति एक बार फिर टूटी।
बेटियों ने पिता को न सिर्फ मुखाग्नि दी बल्कि अंतिम संस्कार की हर वह रस्म निभाई, जिनकी कल्पना कभी एक पुत्र से की जाती थी। उनके पिता की भी अंतिम इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार उनकी पुत्रियों के हाथों से ही हो। ब्राम्हण समाज में पहला अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया. तीनों बेटियों ने मिलकर अपने पिता को कंधा दिया और जो क्रियाएं एक पुत्र को करना चाहिए वह सभी अंतिम संस्कार की क्रियाएं बेटी ने बेटे की तरह कर अपने पिता की इच्छा को पूर्ण किया।
नगर के वरिष्ठ ,ब्राम्हण समाज के पूर्व अध्यक्ष, तृतीय कर्मचारी संघ के पूर्व अध्यक्ष, सयुक्त कर्मचारी मोर्चा के जिलाध्यक्ष डॉ महेंद्र पिता नारायण लाल जानी उम्र 56 वर्ष के असमय निधन हो जाने पर उनका अंतिम संस्कार पंपावती नदी के तट पर मंगलवार को उनकी बेटी अंकिता, अम्रता और अति जानी ने मुखाग्नि दे कर किया. स्व.जानी की तीनों पुत्रियां ही है. वे एक वर्ष से अधिक समय से बीमार चल रहे थे. उनकी बेटियों ने उनकी सेवा पुत्र के समान ही की और सारी व्यवस्थाओं को भी संभाला। उन्होंने अंतिम इच्छा जाहीर की थी कि उनका अंतिम संस्कार उनकी बेटियां ही करें. पिता की अंतिम इच्छा निभाते हुए बेटियों ने ही बेटों का फर्ज अदा करते हुए पिता को मुखाग्नि दी। बेटियों ने कहा कि समय से साथ सोच बदलने की जरूरत है। आज से समय में बेटा-बेटी बराबर हैं।
बेटियां क्यों नहीं…
उन्होंने कहा कि आज जमाना बदल गया है, पुरानी कुरीतियां रही हैं कि दाह संस्कार का काम केवल बेटे ही कर सकते हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं है, जमाना बदल रहा है। जो काम बेटे कर सकते हैं, उस काम को बेटियां भी कर सकती हैं। आज लड़कीयों का जमाना हैं यह हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। हमने अपने पिता का अंतिम संस्कार किया है और हम वह सभी कार्य करेंगे, जो एक बेटे को करनी चाहिए। इसके बाद सभी रिश्तेदारों ने एक राय होकर बेटी को ही अंतिम संस्कार के लिए आगे किया और उसे ढांढ़स बंधाया।
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