कोरोना ने सामने लाकर रख दी ” पलायन” की सच्चाई ..।।

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चंद्रभानसिंह भदोरिया @ एडिटर इन चीफ

पलायन .. आजादी के बाद से 73 सालो मे यह समस्या लगातार रही है लेकिन कोरोना यानी कोविड -19 ने पलायन पर पहली बार तंत्र की विफलता पर सभी को सोचने पर मजबूर कर दिया है अब सोचा जा रहा है कि आखिर क्यो आदिवासियों को दो जून की रोटी की तलाश मे अपने गांवो से दूर सैकड़ो किलोमीटर दूर जाना पडता है ..झाबुआ ओर अलीराजपुर के अलावा पश्चिम मध्यप्रदेश के धार ; रतलाम रूरल ओर बडवानी जैसै जिले मनरेगा जैसी योजनाओ के लागू होने के कई सालो बाद भी पलायन के दंश से मुक्त नही हो पा रहे है हाल ही भी जब कोरोना के चलते हुऐ लाकडाऊन मे प्रवासी मजदूरो ने पैदल ओर अलग अलग साधनों से जब पश्चिम मध्यप्रदेश के अपने गांवो की ओर रुख किया तो एमपी – गुजरात बाड॔र सरकारी योजनाओं की विफलता की एक सप्ताह तक गवाह बनी रही .. लाखो आदिवासी झाबुआ जिले के पिटोल ; सोतिया जालम ; बालवासा ; मदरानी बाड॔र से पक्के रास्तो से तो करीब 200 ऐसे पाइंट से झाबुआ जिले मे घुसे जहां सडके नही है इसी तरह अलीराजपुर जिले मे चांदपुर ; छकतला ; सेजावाडा ; कट्ठीवाडा ओर नम॔दा के रास्ते स्थानीय मजदूर अंचल मे लोटे .. तब देश – दुनिया को लगा कि वास्तव मे रोजगार के अभाव मे मनरेगा जैसी योजनाऐ होते हुऐ भी आदिवासी पलायन पर मजबूर है ।

मनरेगा ” कागज” पर जारी

मनरेगा यानी महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना मे एक गरीब परिवार को साल मे 100 दिन काम देने का प्रावधान है ओर अगर काम ना दे पाये तो भत्ता देने का नियम है लेकिन झाबुआ जिले के प्रशाशन के आंकडे कहते है कि वह लाखो मानव श्रम दिवस काम दे रही है ओर 190 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी दे रही है लेकिन हकीकत मे अधिकांश मामलो मे कागज पर यह मजदूरी है जमीन पर नहीं .. झाबुआ के जिला पंचायत के रिकार्ड बताते है कि विगत 7 साल मे सिर्फ झाबुआ जिले मे ही मनरेगा के तहत सरकार 614.72 करोड रुपये खर्च कर चुकी है अब सोचिए अगर यह राशि खर्च होती तो क्या इतनी बडी तादाद मे आदिवासी मजदूरी करने के लिए भारी राज्यो मे पलायन करता ?

पहले इस टेबल से खर्च समझिए

मनरेगा मे झाबुआ जिले का खर्च ( लाख मे )
सन – 2013-14 – 4346.64
सन – 2014-15 – 6226.38
सन – 2015-16 – 3642.45
सन – 2016-17 – 9877.66
सन – 2017-18 – 9845.16
सन – 2018-19 – 13698.20
सन – 2019-20 – 13835.59

अब आप इन आंकड़ो को देखिऐ ओर समझिए कि मनरेगा जैसी योजनाऐ कागज पर है या जमीन पर ?

जनप्रतिनिधियों की खामोशी क्यो ?

मनरेगा जैसी रोजगार मूलक योजनाओं पर लाखो रुपये खर्च लेकिन फिर भी पलायन जारी है इस मुद्दे पर आदिवासी इलाको के जनप्रतिनिधियों की रहस्यमय मोन समझ से परे है ऐसा लगता है आदिवासी समाज के जनप्रतिनिधियों को सिर्फ वोट लेने तक मतलब होता है उसके बाद आदिवासियों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है सन 2000 से लेकर 2020 तक का इतिहास बताता है कि मध्यप्रदेश की विधानसभा मे झाबुआ जिले के किसी भी विधायक ने पलायन ओर मनरेगा के कागजी आकड़ों को जोड़कर कोई सवाल नहीं पूछा .. ना इस मुद्दे पर कभी प्रभावी धरना – चक्काजाम या आंदोलन किये गये .. साफ जाहिर है कि चाहे किसी भी पार्टी के हो स्थानीय जनप्रतिनिधियों मे पलायन महत्वपूर्ण एजेंडा है ही नहीं ।

शिक्षा ओर जागरुकता निकालेगी राह

आदिवासियों को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार मिले .. उद्योग खोले जाये .. योजनाओं को कागजों से इतर जमीन पर उतारा जाये तभी इलाके के आदिवासियों का भला होगा .. अच्छी बात यह है कि कुछ युवा लडके एक्टीविस्ट बन रहे है लेकिन अभी तक वे सोशल मीडिया पर ही सक्रिय है उनको साथ मे जमीन पर भी सक्रियता बढाने की आवश्यकता है ।

 

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