विपुल पांचाल@ झाबुआ Live
पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ जिला एक बार फिर पद्मश्री सम्मान को पायेगा। इस बार एक महिला इस सम्मान से नवाजी जाएगी।
यह महिला पिथोरा पेंटिंग आर्टिस्ट है। पिथौरा पेंटिंग केवल पुरूषों की कला है लेकिन भूरी बाई पहली महिला आर्टिस्ट है। समाज के विरोध के बावजूद भूरी बाई ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की।
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पद्म सम्मान की घोषणा की गई। ग्रामीण इलाकों में बदलाव लाकर पूरी दुनिया में मशहूर हो चुकी भूरी बाई को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद सम्मानित करेंगे। अभी वे भोपाल में जनजाति संग्राहालय में कार्यरत है।
ऐसे शुरू हुआ सफर-
झाबुआ जिले के गांव की रहने वाली 45 वर्षीय भूरी बाई वर्ष 2012 में पति और बच्चों के साथ मजदूरी करने भोपाल आयी थी। भारत भवन में चल रहे रिनोवेशन के काम में वह रेत-गारा उठाने का काम करती थी। भूरी बतातीं हैं कि एक दिन मेरी नजर चूने के डिब्बे पर पड़ी। खाली वक्त में चूने में लकड़ी डुबोकर अपने बच्चे के लिए फर्श पर कुछ अटपटे चित्र बनाने लगी। इन चित्रों पर एक व्यक्ति की नजर पड़ी। उसने चित्रों के बारे में पूछा और कहा कि इन्हें कैनवास पर बना सकती हो। मैं न तो उस व्यक्ति को जानती थी न कैनवास कभी देखा था। फिर भी प्रयास किया और चित्रों की एक श्रृंख्ला तैयार कर दी। इन्ही चित्रों के माध्यम से मुझे जनजाति संग्राहालय की दीवारों को पेंट करने का मौका मिला। तब जाकर मुझे पता चला कि वो कोई आम इंसान नहीं बल्कि प्रसिद्ध चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन हैं। उन्होंने मेरी पिथौरा कला को जनजाति संग्राहालय की दीवारों तक पहुंचाया और इन दीवारों ने अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धी दिलवायी।
कला के लिए लड़ गई समाज से-
भूरी बाई ने बचपन में अपने पिता को पिथौरा चित्र बनाते देखा था। हालांकि उनकी जाति में चित्र उकेरने का अधिकार केवल पुरूषों का है और महिलाओं के लिए पिथौरा चित्र बनाना निषेध है। लेकिन भूरी बतातीं हैं कि पिता के जाने के बाद मैं रंग लेकर जंगल में चली जाती थी और पेड़ों पर चित्रकारी करती थी। जब जनजाति संग्रहालय में पेटिंग का काम मिला तो समाज के लोगों ने कड़ा विरोध किया पर मुझे अपना और परिवार का पेट पालना था इसलिए काम किया। हालांकि इतना सम्मान मिलने के बाद लोगों के अब शिकायत नहीं है।
शिखर सम्मान ने पहुंचाया अर्श पर-
भूरी बाई की इस कला को मध्यप्रदेश सरकार ने शिखर सम्मान और देवी अहिल्या सम्मान से नवाजा है। दम तोड़ती आदिवासियों की यह कला भूरी बाई और उनके परिवार ने आज भी सहेजकर रखी है। कला कभी मरे नहीं इस लिए भूरी ने अपने बच्चों और नाती-पोतो को भी पिथौरा पेटिंग बनाना सिखाया है। उनके घर कर हर बच्चा पिथौरा के बारे में न केवल जानता है बल्कि कपड़ों और दीवारों पर खूबसूरत पेटिंग भी बनाता है।
क्या है पिथौरा चित्रकला-
भील जाति के लोग पिथौरा चित्रकला में माहिर हैं। वे अपने घरों की दीवारों को चित्रों से रंगते हैं। यह चित्रकला बड़ोदा से 90 किलोमीटर पर स्थित तेजगढ़ ग्राम (मध्य गुजरात) में रहने वाली राठवा, भील व नायक जनजाति के लोगों द्वारा दीवारों पर बनाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि यह शांति और खुशहाली का प्रतीक हैं। इन चित्रों में भील जनजाति के रोजमराज़् के जीवन, पशु-पक्षी, पेड़ और त्यौहार के प्रसंग अंकित किए जाते हैं। इसमें चित्र के बीच में एक छोटा आयताकार जानवर बनाया जाता है, जिसमें उंगलियों से छोटी-छोटी बिंदी लगाई जाती है।
इनके लिए पिथोरा बाबा अति विशिष्ठ व पूजनीय होते हैं। जो अपने घर में अधिकाधिक पिथोरा चित्र रखते हैं वे समाज में अति सम्माननीय होते हैं। पिथोरा चित्रकार को लखाड़ा कहा जाता है तथा जो इन चित्रकलाओं का खाता रखते हैं उन्हें झोखरा कहा जाता है। सर्वोच्च पद पर आसीन जो पुजारी धार्मिक अनुष्ठान करवाता है उसे बडवा कहा जाता है। आदिवासियों का मानना है कि यह चित्र केवल पुरूष ही बना सकते हैं। महिलाओं के लिए पिथौरा चित्रण निषेध है।
रंग बनाने के लिए रंगीन पाउडर में दूध व महुआ का प्रयोग किया जाता है। चित्र बनाने के लिए मुख्यत: पीले, नारंगी, हरे, नीले, सिन्दूरी, लाल, आसमानी, काले व चांदनी रंगों का प्रयोग किया जाता है। ब्रश बनाने के लिए बेंत या टहनी के किनारों को कूटा जाता है।