चौकड़ी से घिरी नेता व आम कार्यकर्ताओं से दूरी महंगी पडी भाजपा को

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झाबुआ डेस्क
मध्यप्रदेश में भाजपा ने शिवराजसिंह चौहान के नैतृत्व में पुनः सत्तासीन होने का संकल्प इस बार पूरा नही कर सकी।
वहीं झाबुआ जिले में भी कांग्रेस के अभेद गढ में सेधं लगाकर पहली बार भाजपा का खाता खोलने वाली निर्मला भूरिया ने जहां 2013 के चुनाव में पूरे जिले को भगवामय कर दिया था तो इस बार सिर्फ झाबुआ को छोड़कर पूरे जिले में कांग्रेस परचम लहराने में सफल हो पाई। पेटलावद से भी निर्मला अपनी सीट नहीं बचा पाई। यहाँ भाजपा को एक बडा झटका लगा हैं। क्योंकि यहाँ से प्रदेश सरकार की पूर्व राज्यमंत्री व कई बार पार्टी बदल चुके भाजपा के स्टार प्रचारक व स्वर्गीय सांसद दिलीपसिंह भूरिया की पुत्री चुनावी मैदान में थी।

चौकड़ी से घिरी निर्मला….!
शुरूआती दौर में ’’विकास व्यक्त्वि’’ के रूप में उभरी निर्मला भूरिया चुनाव आते-आते चैकडी से घिरी नेता तथा कार्यकर्ताओं से दूर रहने वाली विधायक की छवि के रूप में प्रचारित हो गई थी। भाजपा के कार्यकर्ताओं ने ही कई बार आरोप लगाए की तीन-चार नेताओं के अलावा किसी की नहीं सुनी। यहाँ तक की भाजपा शासनकाल में भाजपा नेताओं को भ्रष्ट्र अधिकारीयों को पेटलावद से विदा करने में मशक्कत करना पडी। हमेशा कार्यकर्ताओं का विरोध मोल लिया। यहाॅ तक कि ऐन चुनाव में भी कार्यकर्ता जो पार्टी की रीढ होता हैं से दूरी बरकरार रखी। हांलाकि यह बात अलग हैं कि कुछ कार्यकर्ताओं ने निर्मला भूरिया को गुमराह किया और वो इनको समझ नहीं पाई। वो कार्यकर्ता जिन पर निर्मला ने आॅखे बंद करके विश्वास किया उनका उनके क्षैत्र के अलावा ग्रामीण क्षैत्रों में विरोध, अतिआत्मविश्वास ने भी चुनाव में मतदाताओं ने भाजपा को नकार दिया। संगठनात्मक ढांचे में कमजोरी और असंतुष्ट कार्यकर्ताओं का खुलकर विरोध करना महंगा साबित हुआ। इस बार हिंदु संगठनों ने चुप्पी साध रखी थी। हांलाकि एमपी आलाकमान के कई बड़े नेता व कार्यकर्ता कई हफ्तों तक यहाँ डेरा डाले थें।

हार के गुणा-भाग में जुटी भाजपा…!
परिणाम आने के बाद पेटलावद सहित पूरे जिले में भाजपा अर्श से फर्श की ओर पहले वाली स्थिति में लौट आई। ये अलग बात हैं कि झाबुआ में जीत का लाभ अभी भी नेतागण उठाएंगे। हार के गणित में उलझे नेतागण कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है। घरों में बैठकर अंदाजा लगाया जा रहा हैं किसने ज्यादा नुकसान किया, किसका विरोध-किसका साथ महंगा पडा। लगातार चार बार जीत चुकी पेटलावद से निर्मला को अपनी ही गलती से हार का मुँह देखना पडा।

भाजपा से टुटे केहरसिंह मेड़ा
तथा रामा क्षेत्र से वालसिंह मेड़ा को मिले मत निश्चित भाजपा की हार में सहायक साबित हुए। बंद कमरों में अपनी गलती का दुःख मना रहे नेतागण कह रहे हैं कि अगर इनकों मना लेते तो यह दिन नहीं देखना पडता। कहते हैं ’’अब पछताए होत का, जब चिडिया चुग गई खेत’’।

किसको कितने मिले…!
पेटलावद विधानसभा में अपना भाग्य आजमाये 7 प्रत्याशीयों में सर्वाधिक कांग्रेस के वालसिंह मैडा को 93 हजार 425 मत मिले, उन्होंने 5 हजार मतों के अतंर से निर्मला भूरिया को शिकस्त दी। मतगणना शुरू होने के बाद से चौथे दौर में 1212 मतों से बढत लेने के बाद फिर वालसिंह लगातार 23 राउण्ड तक आगे ही रहे। हांलाकि शुरुआती के 3 दौर में निर्मला को बढत अवश्य मिली। लेकिन वो ऊँट के मुॅह में जीरे के समान थी।
जानकारी के अनुसार बिटीपी के सचिन गामड को 6579 मत मिले। इसी प्रकार निर्मला भूरिया भाजपा को 88,425, वालसिंह मैडा कांग्रेस 93425, निर्दलीय केहरसिंह मेड़ा को 1437, बहुजन समाज पार्टी के रामचंद्र सोलंकी 2675, आप के रालूसिंह मेड़ा 763, भारतीय बहुजन पार्टी के रामेश्वर सिंगाड को 752 मत मिले। इस अनुसार निर्वाचन आयोग के द्वारा तय मत नहीं ला पाने के कारण भाजपा-कांग्रेस को छोंडकर सभी की जमानत नहीं बच पाई।

आखिर किन कारणों ने हराया निर्मला को….!
1993 में कांग्रेस के टिकिट से पहली बार चुनाव लडी और जीती निर्मला भूरिया ने लगातार 1998 व 2003 में भाजपा के टिकिट से चुनावी जीत हासिल की। पिता स्वर्गीय दिलीपंसिह भूरिया के उपरी स्तर पर बडे जनीतिक नेताओं से संबध अच्छे नही होने के कारण वो बार-बार मंत्री बनते-बनते रह गई। आखिरकार शिवराजसिंह ने ही आखरी दिनों में राज्यमंत्री बना दिया, लेकिन शायद वो ही पद उसके लिये अपशगुन साबित हुआ। क्योंकि खाली विधायक रहते वो तीन चुनाव जीत गई तो मंत्री बनते ही चौथा चुनाव हारना पड़ा था। पांचवे चुनाव में “शिवलहर” के चलते निर्मला ने फिर 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में प्रचण्ड बहुमत से जीत दर्ज की, लेकिन उसके बाद निर्मला ने फिर 2008 वाली गलती दोहरा दी। चौकड़ी से घिरी रहना और कार्यकर्ताओं से दूरी शायद उनके लिए इस चुनाव में हार का सबसे बड़ा फेक्टर साबित हुआ।

नोटा भी बना भाजपा के लिये मुसीबत:
वहीं इस बार भारतीय जनता पार्टी के पिछड़ने की खास वजह शायद नोटा ही बनी है। पिछले चुनाव की तुलना में इस चुनाव में भारी संख्या में मतदाताओं ने किसी दल को चुनने की बजाय नोटा का बटन दबाया।
5 हजार 148 मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल किया। इसे मतदाताओं को किसी गुस्से का कारण भी माना जा सकता है।
मतदाताओं की नाराजगी तो नहीं
चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी से नाराज वोटरों ने नोटा के पक्ष में वोट डाला है। इससे स्पष्ट है कि मतदाताओं का रुख भाजपा और कांग्रेस में से किसी को भी जिताने का नहीं था।

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