विलुप्त होती जा रही संजा की परम्परा,अब नहीं सुनाई देते लोकगीत

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मयंक विश्वकर्मा, आम्बुआ

पुरातन सनातन संस्कृति का प्रतीक माना जाने वाले ग्रामीण परिवेश का श्राद्ध पक्ष में 16दिनों तक दीवारों पर उकेरी जाने वाली आकृतियां तथा गाए जाने वाले गीत सुनाई नहीं देते हैं यह परंपरा समाप्त होती जा रही है।

                श्राद्ध पक्ष प्रारम्भ होने के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में शाम के समय गली मुहल्लों से संजा के कर्ण प्रिय लोकगीत सुनाई पड़ते थे दीवारों पर गाय के गोबर से छोटी छोटी कन्याओं द्वारा सुंदर आकृतियां उकेरी जाती थी तथा प्रतिदिन नवीन आकृतियां उकेरी जाती थी इसके बाद विधिवत पूजा अर्चना कर शाम को आरती की जाकर लोकगीत गाए जाते थे मगर अब यह सब बीते जमाने की बात लगती है, आम्बुआ में मात्र एक माहेश्वरी परिवार है जो आज भी इस परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं हालांकि अब गोबर मिट्टी तथा चमकदार पन्नी के स्थान पर कागज की ड्राइंग सीट पर बनाया जा रहा है तथा बालशिव भक्तमंडल के बच्चे गीत गा रहें हैं। सर्वपितृ अमावस्या को इसका विसर्जन किया जाएगा।

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