इस खबर में पढ़िए क्यों मनाया जाता है भुंजरिया पर्व

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रितेश गुप्ता, थांदला

भुंजरिया पर्व की शुरुआत सावन मास की शुक्ल पक्ष की नागपंचमी के दिन से की जाएगी। इस दिन गवली समाज की बालिकाएं और महिलाएं खेतों से टोकरी में मिट्टी लाकर अपने अपने घरों में भुंजरिया बोती है और घर पर झूला बांधकर उन भुंजरिया को झूले में झूलाती हैं। 

इस पर्व की प्रचलित जानकारी के अनुसार आल्हा की बहन चंदा श्रावण माह में ससुराल से मायके आई तो सारे नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था। महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरता की गाथाएं आज भी बुंदेलखंड की धरती पर सुनीं व समझी जाती है। बताया जाता है कि महोबा के राजा परमाल, उनकी बिटिया राजकुमारी चन्द्रावली का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा पर चढ़ाई कर दी थी। उस समय राजकुमारी तालाब में कजली सिराने अपनी सखियों के साथ गई हुई थी। राजकुमारी को पृथ्वीराज से बचाने के लिए राज्य के वीर महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान ने वीरतापूर्ण पराक्रम दिखाया था। तब इन दो वीरों के साथ में चन्द्रावलि के ममेरे भाई अभई भी उरई से जा पहुंचे और कीरत सागर ताल के पास हुई लड़ाई में अभई को वीरगति प्राप्त हुई। उसमें राजा परमाल को बेटा रंजीत भी शहीद हो गया। बाद में आल्हा-ऊदल, और राजा परमाल के पुत्र ने बड़ी वीरता से पृथ्वीराज की सेना को हराया और वहां से भागने पर मजबूर कर भगा दिया। महोबे की जीत के बाद पूरे बुन्देलखंड में कजलियां का त्योहार मनाया जाने लगा है। आज भी कई स्थानों पर वह त्योहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है। आज भी बुंदेली इतिहास में आल्हा-ऊदल का नाम बड़े ही आदरभाव से लिया जाता है

12 दिनों तक चलने वाले इस पर्व की जानकारी दिनेश मोरिया द्वारा बताया गया कि  भुंजरियाओ का विसर्जन  राखी के दूसरे दिन भादव माह की एकम पर गवली समाज के लोगों द्वारा अपने-अपने घर पर खीर पुरी मिठाई का भोग लगाकर पूजा अर्चना की जाती है। बड़े ही हर्षाेल्लास के साथ विसर्जन किया जाता है।

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